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टूटता समाज…

मंथन...
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नोट: इस ब्लॉग के किसी भी लेख का उद्देश्य किसी की भावनाओं को ठेस पहुचाना नहीं है  | यह सिर्फ मेरे निजी विचारों की झलक भर है | यदि किसी व्यक्ति अथवा समुदाय को अनजाने में इन से ठेस पहुचती है तो मुझे नादान समझ क्षमा प्रदान करें  |


एक समय की बात है, एक जंगल में नदी किनारे एक पेड़ पे कुछ बंदर रहते थे | नदी में कुछ मछलियों का भी निवास था | मछलियाँ और बंदर दोनों ही अपना-अपना जीवन अपने-अपने तौर-तरीकों से जीते थे |

बंदर दिनभर खेलकूद करते, ऊँचे-ऊँचे पेड़ों पर चढ़ भांति-भांति के फल खाते थे | किंतु जितना आनंदमय उनका दिन व्यतीत होता था, उतनी ही डरावनी उन्हें रात लगती थी | रात के घने अँधेरे में कुछ दिखाई नहीं देने के कारण बंदरों को यह डर सताता था कि कहीं कोई बड़ा जानवर उनका शिकार न कर ले | अक्सर इस डर के चलते, बंदर अँधेरे में एक दूसरे से उलझ बैठते और आपस में ही लड़-लड़ के घायल हो जाते थे | बहुत सोच-विचार करने पर भी उन्हें अपनी इस समस्या का कोई समाधान नहीं सूझता था |  जैसे-जैसे दिन ढले अँधेरा होने लगता, बंदरों की बेचैनी बढ़ने लगती थी |

मछलियाँ भी यूँ तो दिनभर नदी में उछल-कूद करतीं, अनंत गहरायीओं में गोते लगाती, किंतु जब भी नदी में से पेड़ों पे लगे रंग-बिरंगे फल देखतीं, तो सहसा उदास हो जातीं थीं | नदी में मिलने वाले भोजन में विविधता के आभाव के कारण, अक्सर बड़ी मछलियाँ छोटी मछलियों को खा जाती थीं | सभी मछलियों का एकमत था कि ऐसा नहीं होना चाहिए, किंतु भूख पे किसका बस चला है ? जब भी कोई मछली भूख से बेहाल होती थी, अति-विवश होकर उसे किसी और मछली का शिकार करना ही पड़ता था | मछलियाँ जब भी पेड़ों पे लगे फल देखतीं, तो सोचतीं कि काश!! वो पेड़ों पे चढ़ उनके फल खा सकतीं तो एक-दूसरे का शिकार नहीं बनतीं | अपने-अपने जीवन में, अपने-अपने दुखों के चलते, एक अधूरेपन की वेदना लिए दोनों ही बस जिए जा रहे थे |

एक दिन यूँ ही, जब एक घायल बंदर नदी किनारे बैठा दर्द से करहा रहा था, तब वहीँ से गुज़रती हुई एक मछली उसकी दर्द भरी आवाज़ सुन, रुक कर उस से रोने का कारण पूछने लगी | जवाब में बंदर ने उसे अपनी आप बीती सुनाई कि कैसे हर रोज कोई न कोई बंदर इसी तरह अँधेरे और अपने डर के कारण घायल होता रहता है | उसकी व्यथा सुन मछली को उस पर बहुत तरस आया और वो कुछ देर उस से हमदर्दी जता और अगले दिन फिर मिलने का वादा कर वापिस अपने कुनबे की ओर चली गयी | वापिस आ कर उस मछली ने अपनी सखियों को बंदरों की कहानी सुनाई | कहानी सुन कर एक बूढ़ी मछली ने उसे नदी की गहरायी में पाए जाने वाले एक दुर्लभ पौधे के बारे में बताया जिसमे चमकदार रौशनी देने वाले बेर लगते हैं, किंतु पानी से बाहर निकालने पर वह बेर केवल कुछ घंटे ही जगमगाते हैं फिर मुरझा जाते हैं |

अगले दिन मछली ने बंदर को उस बेर के बारे में बताया, जिसे सुनते ही बंदर खुशी से झूमने लगा | बंदर मछली से ज़िद करने लगा कि वह उसे प्रतिदिन शाम ढले एक बेर ला दिया करे जिसकी सहायता से वह रात को अपने आसपास की डालों को रोशन कर चैन की नींद सो सकेगा, और बदले में जो मछली कहेगी वह करेगा | मछली को भी उसका यह प्रस्ताव पसंद आया, और उसने बदले में बंदर से कहा कि वह उसे प्रतिदिन पेड़ों पे लगने वाले फलों में से एक ला कर देगा | बंदर इस लेन-देन के लिए खुशी-खुशी मान गया |

अब रोज़ाना बंदर मछली को एक फल देता, और मछली उसे बदले में रौशनी वाला बेर ला कर देती | दोनों ने एक दूसरे की समस्या सुलझा कर अपना-अपना जीवन शांत एवं सुखमय बना लिया | उन दोनों की देखा-देखी बाकी बंदरों ने भी एक-एक मछली से इसी प्रकार के लेन-देन की संधि कर ली, और धीरे-धीरे उनका एक समाज बन गया, जहाँ कि दोनों प्रजातियां एक दूसरे को पूर्णता प्रदान करती थीं |

एक दिन कुछ मछलियाँ और बंदर आपस में हंसी-ठिठोली कर रहे थे कि धीरे-धीरे उनकी चर्चा ने एक नया मोड़ ले लिया और यह सवाल उठने लगा कि मछलियों और बंदरों में कौन श्रेष्ठ है ? जहाँ बंदरों ने अपने पेड़ों पे चढ़ फल तोड़ने के कौशल का बखान किया, वहीँ मछलियों ने अपनी नदी में गोता लगा कर बेर लाने कि क्षमता के बारे में कहा | बंदरों का तर्क यह था कि जीवन में भोजन सबसे बड़ी ज़रूरत है, और बंदर मछलियों को भोजन देते हैं, अन्यथा वह आपस में एक दूसरे को ही भोजन बनाती थीं | मछलियों ने वितर्क में कहा कि रोज़ाना पेड़ों पे चढ़ने के लिए स्वस्थ रहना ज़रुरी है, और मछलियों के कारण ही बंदर रोज सुरक्षित हो, चैन की नींद सो कर स्वस्थ रहते हैं | किंतु बंदरों ने उनकी एक न मानी और सभी बंदर मछलियों का मजाक उड़ाने लगे | धीरे-धीरे बात इतनी बढ़ गयी की दोनों ने अपनी संधि तोड़ दी | गुस्से में बिलबिलाये बंदरों ने मछलियों को चुनौती दे डाली की अब से मछलियाँ अपने लिए फलों की व्यवस्था स्वयं ही करें, और जोश में आकर मछलियों ने चुनौती स्वीकार भी कर ली |

अब मछलियाँ रोज जल में से ऊँचे से ऊँचा उछल-उछल कर प्रयास करती हैं कि कोई फल तोड़ सकें | कभी-कभी उन्हें सफलता भी मिल जाती है किंतु अपने नदी में गोता लगाने के प्राकृतिक कौशल को छोड़, बंदरों के पेड़ों पे चढ़ फल तोड़ने के कौशल में निपुणता पाने के प्रयास में मछलियाँ अनजाने में अपने ही स्वस्थ को हानि पंहुचा रही हैं | और बंदर बेचारे अपने अहंकार के चलते मछलियों से क्षमा मांग वापिस संधि करने को बोलने में असमर्थ हैं, जिसके कारणवश वह वापिस अपने पुराने डर के साथ जीने को मजबूर हैं |

यदि हम इस कहानी को नैतिक दृष्टि से देखेंगे, तो पाएंगे कि दोनों ही प्रजातियां अहंकार की शिकार हैं | जहाँ बंदरों को मछलियों की बेर लाने की क्षमता का सम्मान करना चाहिए था, वहीँ मछलियों को बंदरों के पेड़ पे चड़, फल तोड़ने के कौशल का सम्मान करना चाहिए था | अगर बंदरों का दोष यह है कि उन्होंने मछलियों का मज़ाक उड़ाया, तो मछलियों की गलती यह है की वे अपना कौशल छोड़, बंदरों के कौशल को श्रेष्ठता का मापदंड मान उनसे स्पर्धा (Competition) कर रही हैं| दोनों ही एक-दूसरे पर दोषारोपण कर अपनी गलती को न्यायसंगत (Justify) सिद्ध करने में यह भूल रहे हैं कि, उनका आपस में मान-मुटाव धीरे-धीरे पहले उनके समाज, और फिर उनकी जाती को ही खात्मे की दिशा में ले जा रहा है | ज़रूरत है दोनों को एक-दूसरे की क्षमता और कौशल का सम्मान कर, यह भूलने की कि “कौन श्रेष्ठ है” | दोनों ही एक-दूसरे के पूरक हैं और अलग-अलग गुणों एवं क्षमताओं के स्वामी हैं, जिसके चलते उनमें श्रेष्ठता का निर्णय करना यूँ हुआ कि जैसे कोई ये निर्धारित करे कि पानी और हवा में से कौन अधिक जीवनदायी है ?

आप सोच रहे होंगे कि” आखिर इस कहानी का तात्पर्य क्या है  ?” “लेखक कहना क्या चाहता है ?”

जो हाल इस कहानी में बंदरों, मछलियों एवं उनके समाज का हुआ है, लगभग वैसा ही हाल आजकल मानव समाज का हो रहा है | मानव समाज का आधार है स्त्री एवं पुरुष द्वारा विवाह उपरांत स्थापित किया गया परिवार| वह परिवार जहाँ सामाजिक स्वीकृति के पश्चात स्त्री एवं पुरुष, संतान की उत्पत्ति कर, समाज को आगे बढ़ाते हैं|

आदिकाल से ही जब मानव “आदिमानव” हुआ करता था, विवाह व्यवस्था को एक सकारात्मक रूप से देखा जाता था, और जिस प्रकार एक आदर्श व्यवस्था में सभी अंग अपना-अपना उत्तरदायित्व निभाते हैं, उसी प्रकार विवाह व्यवस्था में स्त्री एवं पुरुष अपने अपने उत्तरदायित्व निभाते थे | उत्तरदायित्व के आधार स्त्री-पुरुष के प्राकृतिक गुण एवं कौशल को देखते हुए निर्धारित किये गए | उदाहरण के लिए :

पुरुष गुण: शारीरिक बल (Physical Strength), चुस्ती-फुर्ती (Efficiency & Agility), भौतिक विश्लेषण (Physical Analysis) आदि |

स्त्री गुण : शारीरिक कोमलता (Physical Tenderness), भावनात्मक प्रबलता (Emotionally Strong), करुनामय (Compassionate) आदि |

अपने इन्ही गुणों के आधार पर पुरुषों को परिवार की सुरक्षा एवं शिकार कर भोजन प्रबंध, और स्त्रियों को शिशु-पालन एवं गृह संचालन का कार्यभार सौंपा गया | स्त्री एवं पुरुष दोनों ही अपने-अपने उत्तरदायित्वों से पूर्णतया संतुष्ट रहते और साथ ही साथ एक-दूसरे को सम्मान की दृष्टि से देखते थे | जहाँ स्त्री, पुरुष को एक प्रबंधकर्ता (Provider) का मान देती, वहीँ पुरुष, स्त्री को एक पालनकर्ता (one who nurtures) का सम्मान देते थे | इनके आपसी प्रेम एवं पारस्परिक सम्मान के चलते ही विभिन्न संस्कृतियाँ इतनी विकसित हो सकीं |

किंतु जैसे इस सृष्टि में सभी कुछ विनाशकारी है, और कभी न कभी नष्ट होगा, उसी तरह संस्कृति एवं समाज भी अपने अंत की ओर बढ़ रहे हैं |

बदलते वक्त के साथ-साथ मानव समाज में वही बदलाव आया जो इस लेख की प्रारंभिक कथा में बंदरों एवं मछलियों में आया था | पुरुष बंदरों की तरह, अपने प्रबंधकर्ता होने के अहंकार से ग्रस्त हुआ तो समाज पुरुष-प्रधान हो गया | जिसका दुष्प्रभाव यह हुआ कि स्त्री का शोषण होने लगा, जिसके कई प्रमाण मानव इतिहास में देखे जा सकते हैं | न जाने कितने ही वर्षों तक स्त्री ने अपने दर्द को अपने ही अंदर दबा कर रखा, वजह सिर्फ यह थी कि वह पुरुषों की अपेक्षा शारीरिक निर्बलता के कारण अपनी सुरक्षा एवं भोजन प्रबंध में असमर्थ थी |

जैसे-जैसे समय बीतता रहा, भोजन अर्जित करने के माध्यम बदलने लगे | पहले शिकार करना पड़ता था, फिर खेती-बाड़ी | जब विज्ञानं और विकसित हुआ तो भोजन व्यवस्था के भी नए-नए अवसर एवं उपाय विकसित हुए | अब भोजन पकड़ना या उगाना नहीं पड़ता था, अपितु भांति-भांति के काम कर, धन Money) कमा कर खरीदना पड़ता था | अर्थात भोजन अर्जित करने के लिए शारीरिक गुणों के साथ-साथ मानसिक गुण भी प्रचलन में आ गए |

समय के इस चरण में शिक्षा ने एक अति-महत्वपूर्ण  भूमिका निभाई | स्त्री को पुरुषों के सामान शिक्षा के अवसर मिलने लगे और धीरे-धीरे स्त्री भी धन कमाने योग्य बन गयी | अपने विकास के इस चरण में आकर स्त्री को मानो अपने अस्तित्व को सार्थक साबित करने के लिए ब्रह्मास्त्र मिल गया | अब वह पुरुष-प्रधान समाज को उस पे अब तक किये गए अत्याचार का उचित जवाब देने में सामर्थ्य समझने लगी | और यहाँ स्त्री से मछलियों के सामान गलती हुई | अपने प्राकृतिक गुणों को भूल आज की नारी, अपना अस्तित्व की पूर्णता, सिर्फ पुरुषों के सामान धन कमा कर, आत्म-निर्भर होने में ही देखती है | नतीजा यह हो रहा है कि आज के विवाह बंधन में आपसी प्रेम और सम्मान से अधिक, अपने-अपने स्वाभिमान की लड़ाई देखने को मिलती है |

स्त्री-पुरुष के मध्य अविराम चल रही इस अस्तित्व की लड़ाई के फलस्वरूप, आज “विवाह” रुपी व्यवस्था, “तलाक” रुपी कैंसर से ग्रस्त हो चुकी है | यह कैंसर पिछले 20-25 वर्षों में अति-भयावह एवं विकराल रूप धारण कर चुका है | इस दौर में, विश्वभर में तलाक की दर (Percentage) में 500 % -700 % की वृद्धि हुई है | अब आप ही सोचिये की यदि “विवाह” अर्थात मानव-समाज का आधार इस दर से टूटते रहेंगे, तो मानव-समाज और कितने समय जीवित रहेगा|

आवश्यकता है कुछ कड़े कदम उठाने की, स्त्री एवं पुरुषों केआपसी व्यवहार एवं सोच में परिवर्तन लाने की | शुरुआत एक सवाल से होनी चाहिए कि:

यदि स्त्री एवं पुरुष शारीरिक एवं मानसिक रूप से पूर्णतया भिन्न हैं, तो फिर इनमें किसी भी प्रकार की स्पर्धा का क्या औचित्य ? जब दोनों के गुण एवं कौशल में कोई समानता नहीं, तो फिर श्रेष्ठता का प्रश्न ही कहाँ ?

पुरुष को प्रबंधकर्ता होने का अहंकार त्याग, स्त्री के पालनकर्ता होने का सम्मान करना चाहिए, और स्त्री को भी पुरुष को प्रबंधकर्ता मान धन कमाने का संघर्ष त्याग पुनः अपना स्त्रीत्व विकसित कर परिवार के पालनकर्ता का कार्य करना चाहिए | केवल तब ही मानव समाज अपने अंत के विपरीत, अपने विकास के पथ पे बढ़ेगा|

धन्यवाद

चंद्र प्रताप सिंह

ceepsingh@gmail.com

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